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Published on Saturday, January 20, 2018 by Dr A L Jain | Modified on Tuesday, July 9, 2019
चित्तौड़ दुर्ग पर कुल मिलाकर 65 से अधिक दर्शनीय स्थल है। इनमें से मुख्य निम्न है -
रावत बाघसिंह देवलिया प्रतापगए़ का स्वामी था, जिसने राणा विक्रमादित्य के प्रतिनिधि के रूप में 1535 में सुल्तान बहादुरशाह की चित्तौड़ चढ़ाई के समय युद्ध में वीरगति इसी स्थान पर पाई थी।
हनुमान पोल एवं भैरव पोल के बीच चार खम्भों वाली छतरी वीर कल्ला की एवं दूसरी जयमल की है। सन् 1567 में बादशाह अकबर के आक्रमण के समय सरदारों के आग्रह से राणा उदयसिंह किले की दिशा का भार इन दोनों वीरों को सौपकर सेना को संगठित करने पहाडों में गये थे। अकबर की गोली से वीर जयमल लंगड़ा हो गया था, तब वीर कल्ला के कंधे पर बैठकर दोनों लड़ते हुए मारे गये थे।
रामपोल में प्रवेश करते ही सामने की तरफ पत्ताजी का स्मारक है। चित्तौड़ के तीसरे पार्क (1567 ई.) के समय अकबर के हाथियों की सूंड काटतेहुए एक हाथी ने इन्हें सूंड से पकड़कर पटक दिया था, जिसमें उनकी वीरगति यही हुई थी।
यह मन्दिर बनवीर द्वारा अपने तुलादान के धन से बनवाया गया था।
बनवीर की दीवार के पश्चिमी सिरे पर अपूर्ण बुर्ज तथा कमरा बना हुआ है इसे नौलखा भण्डार कहते है। इसे या तो अस्त्र, शस्त्र, बारूद आदि या खजाने के रूप में उपयोग में लिया जाता था या कोई इसे बाहर से न जान सकता था इसलिए इसे ''न लखा भण्डार'' या नौलखा भण्डार कहा जाने लगा।
राणा सांगा के भाई पृथ्वीराज का दासी पुत्र बनवीर जब राणा विक्रमादित्य की हत्या कर गद्दी पर बैठा तब अपनी स्थिति को सुरक्षित करने व दुर्ग को दो भागों में बांटने के लिए इस विशाल दीवार को बनवाना प्रारम्भ किया था। इस दीवार में कई अन्य भवनों के पत्थर व शिलालेख लगे है।
विजय-स्तम्भ व समिद्धेश्वर मन्दिर के बीच के खुले समतल भाग मंे महराणाओं व राज परिवार के लोगों का अन्तिम संस्कार किया जाता था। पूर्व में अनेक क्षत्राणियों ने अपने पति की चिता में जलकर सती प्रथा का पालन किया था। पुरातत्व विभाग को पूर्व में समिद्धेश्वर मन्दिर के उत्तरी प्रवेश द्वार के पास खुदाई में राख की अनेक पर्ते मिली थी। विश्वास किया जाता है कि इसी स्थल पर दूसरे साके में राजमाता कर्मवती ने तेरह हजार वीरांगनाओं के साथ पर जौहर किया था।
जयमल एवं पत्ता ने अपने स्वामी उदयसिंह की ओर से अकबर से बडी वीरता से अन्तिम समय तक युद्ध करते हुए जान दी थी। उन्ही की स्मृति में यह सुन्दर महल निर्मित है। चार सौ वर्षो बाद भी इस महल की आसमानी रंगत विद्यमान है।
किले का सबसे पुराना यह मन्दिर ऊँची कुर्सी पर बना हुआ है। इसका निर्माण गुहिलवंशी राजा ने सातवी या आठवी शताब्दी में करवाया था। वह पूर्व में सूर्य मन्दिर था। सम्भवतः मुगल आक्रमण के समय सूर्य की मूर्ति तोड़ दी गई हो, उसके सथान पर कालिका माता की मूर्ति स्थापित कर दी गई। इस प्राचीन मन्दिर की बहुत मान्यता है और यह मेवाड़ के प्रमुख शक्ति पीठों में माना जाता है।
चत्रंग तालाब से 1 किमी दूर दक्षिण में दुर्ग का अन्तिम खुर्ज चित्तौड़ी बुर्ज कहलाता है। इसके लगभग 150 फीट नीचे दुर्ग के बाहरी दीवार के समीप एक छोटी पहाडी है। इसे मोहर मगरी कहा जाता है। 1567 ई. में जब अकबर ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया था तब इस दक्षिणी मोर्चे से अकबर की सेना को किले में घुसने का अवसर मिला था। इस मगरी को अकबर ने मजदूरों को एक-एक टोकरी मिट्टी के लिए एक-एक मोहर देकर ऊँचा और समतल करवाया था।
भीमलत कुण्ड से कीर्ति-स्तम्भ को जाने वाली सड़क के पश्चिमी किनारे पर जीर्ण-शीर्ण अवस्था में एक शिवालय है जिसमें शिवलिंग के पीछे भगवान श्वि की विशाल त्रिमूर्ति है। इसका निर्माण 1483 ई. में राणा रायमल के शासन काल में हुआ था।
इस महल में महाराणा कुम्भा के समय तक मेवाड़ के महाराणा रहते थे। यह बहुत विशाल प्रांगण से घिरा (बहुत होते हुए भी) बाहर से बहुत ही सुन्दर शिल्प के कारण आकर्षक एवं भव्य लगता है। इस महल में कई तहखाने है जो सुरंग द्वारा गौमुख कुण्ड से जुड़े हुए थे। महल के अहाते में बने अनेक भवनों में जनाना महल, कंवरपदा के महल, सूरज गोखड़ा, दीवान-ए-आम तथा शिव मन्दिर प्रमुख है। उदयसिंह का जन्म, मीरा द्वारा कृष्ण की आराधना, पन्नाधाय द्वारा उदयसिंह को बचाने के लिए अपने पुत्र का बलिदान, राणा विक्रमादित्य द्वारा मीरा को विषपान करवाना इन्ही महलों में होना बताया जाता है।
श्रृंगार चंवरी के नाम से प्रसिद्ध भगवान शान्तिनाथ का अति सुन्दर कलात्मक मन्दिर आज जीर्ण-षीर्ण अवस्था में है। इसमें कभी 24 मूर्तियाँ विराजमान थीं इसमें वि. सं. 1346 का शिलालेख भी उपलब्ध है। इसे कुमारल नाम श्राविका ने बनवाया था। इसका जीर्णोद्धार वि. सं. 1505 से भण्डारी वेला ने आचार्य जिनसेन सूरिश्वर जी की निष्ठा में किया था। श्रृंगार चंवरी से जुड़ा हुआ पूर्वाभिमुखएक और मन्दिर है जिसका निर्माण रतनसिंह ने किया था। कुछ वर्ष पूर्व यहां वि. सं. 1165 की प्रतिमा विराजमान थी। गर्भ गृह के ऊपर भगवान पाश्र्वनाथ की प्रतिमा है। यह संभवतः दिगम्ब्र जैन मन्दिर था। इसके अलावा भी कई अन्य मन्दिरांे का उल्लेख मिलता है।
सात बीस देवरी मन्दिर के उत्तर में में बना यह विशाल महल महाराणा फतहसिंह जी ने बनवाया था। इस भवन के पास ही सड़क के दोनों ओर खण्डहर दिखाई देते है यह क्षेत्र बाजार था जिसे मोती बाजार के नाम से जानते है।
सात और बीस कुल सताइस देवरियां होने के कारण माउन्ट आबू के विश्वविख्यात जैन मन्दिर की शिल्प श्रेणी के ये सुन्दर मन्दिर अपनी पूरी भव्यता के साथ आज भी खडे है। मुख्य मन्दिर का निर्माण सन् 957 से 972 के बीच हुआ था। इसे सीमन्दर शाह बनवाया था एवं आचार्य यशोभद्रसूरि जी ने प्रतिष्ठा की थी। विस्तृत विवरण इसी पुस्तक में पूजित जैन मन्दिर में दिया गया है। यहां पर जैन यात्रियों के भोजन एवं ठहरने की अत्यन्त सुन्दर व्यवस्था है। यात्रीगण 9252144035 नम्बर पर सुविधा हेतु सम्पर्क कर सकते है। इसे सातबीस देवरी के मन्दिर कहा जाता है।
यह महाराणा कुम्भा द्वारा 1449 ई. में निर्मित विष्णु के वराह अवतार व कुम्भ श्याम का भव्य कलात्मक मन्दिर है। गगनचुम्बी शिखर व विशाल प्रदक्षिणा वाला यह मन्दिर इण्डो आर्यन स्थापत्यकला का एक सुन्दर नमूना है। इसी प्रांगण में दक्षिण दिशा में एक छोटा मन्दिर है जिसे मीरा मन्दिर के नाम से जाना जाता है। प्रारम्भ में इसका नाम मीरा मन्दिर नहीं था। बड़ा मन्दिर वराह अवतार का एवं छोटा मन्दिर कुम्भश्याम का मन्दिर था। मुगल काल में प्राचीन मूर्तियां तोड़ दी गई। उसके बाद नई मूर्तियाँ स्थापित की गई तथा बड़ा मन्दिर कुम्भश्याम का एवं छोटा मीरा मन्दिर कहलाने लगा। मीरा मन्दिर के सामने एक छतरी बनी हुई है जिसे मीरा के गुरु रैदास की छतरी के नाम से जाना जाता है जबकि कई विद्वान मानते है कि रैदास एवं मीरा के जीवनकाल में बहुत अन्तर है एवं रैदास के चित्तौड़ में कालधर्म प्राप्त होने के कोई प्रमाण नहीं है। यह मन्दिर उत्कृष्ट शिल्प के है जिन्हें राणा कुम्भा ने बनवाया था। मीरा मन्दिर के शिखर में जैन तीर्थकरों की मूर्तियाँ सुशोभित है जो उस काल के साम्प्रदायिक सद्भाव की मिसाल है।
47 फीट वर्गाकार एवं 10 फीट ऊँचे आधार पर बना 122 फीट ऊँचा नौ मंजिला यह स्तम्भ स्थापत्य कला सजीव नमूना है। यह आधार पर 30 फीट चैड़ा है। इसमें ऊपर जाने के लिए 157 सीढ़ियाँ है, जिसमें पौराणिक देवी-देवताओं की सैकड़ों मूर्तियाँ खुदी हुई है। इसे इतिहासकार वी.ए. स्मिथ ने हिन्दू देवी-देवताओं का एक सवित्र कोश बताया है। इस स्तम्भ का निर्माण महाराणा कुम्भा ने 1440 ई. में मालवा के महमूद खिलजी को प्रथम बार 1937 में पराजित करने की विजय स्मृति के रूप में करवाया था। यह स्तम्भ 1448 में पूर्ण हुआ था। कुछ विद्वान इसे कुम्भश्याम मन्दिर के सामने विष्णुस्तम्भ के रूप में निर्मित हुआ मानते है किन्तु अधिकांश प्रमाण इसे राणा कुम्भा की मालवा विजय के प्रतीक रूप में ही पुष्टि करते है। इसीलिए इसे 'टाॅवर आॅफ विक्ट्री या 'विजय-स्तम्भ' कहा जाता है।
मालवा के परमार राजा भोज ने इसे 11 वी शताब्दी में बनवाया था इसकी जीर्णोद्वार राणा मोकल द्वारा 1428 ई. में किया गया था। इसमें शिवलिंग के पीछे दीवार पर विशाल शिव की मूर्ति है जो सत (सत्यता), रज (वैभव) व तम (क्रोध) की द्योतक है। इस मन्दिर के भीतर व बाहर बहुत सुन्दर खुदाई का कार्य किया गया है। इसमें जैन तीर्थकरों की मूर्तियाँ भी उत्कीर्ण है।
यह बहुत ही रमणीक तीर्थस्थल है जहाँ शिवलिंग पर वर्ष भर चट्टानों से पानी झरने के रूप में गिरता रहता है। गौमुख के ऊपर उत्तर की ओर पाश्र्वनाथ जैन मन्दिर है जिसका निर्माण महाराणा रायमल के समय (1473-1503 ई.) में हुआ था। इसमें कन्नड़ लिपि में एक लेख भी है। कहा जाता है कि इस मन्दिर से कुम्भा महल तक सुरंग थी जिसे अब बन्द करवा दिया गया है।
छोटे से तालाब के उत्तरी छोर पर बने इस 700 वर्ष पुराने सुन्दर महल को रावल रतनसिंह की पत्नी पभिनी के महल के रूप में जानते है। एक छोटा महल तालाब के बीच में भी बना हुआ है। कहा जाता है कि इसी महल की सीढ़ियों पर पभिनी बैठी थी जिसकी झलक बड़े महल में लगे काँच में प्रतिबिम्ब के रूप में अलाउद्दीन खिलजी ने देखी थी उसके रूप पर मोहित होकर खिलजी ने पभिनी को प्राप्त करने के लिए भयंकर युद्ध किया, पर वह पभिनी को हासिल नहीं कर सका। कई विद्वान पभिनी के प्रतिबिम्ब को खिलजी को दिखाने की कहानी को कपोल कल्पित मानते है। महाराणा सज्जनसिंह जी ने इसका जीर्णोद्धार व कुछ नवीन निर्माण भी 23 नवम्बर 1881 को भारत के तत्कालीन गर्वनर जनरल लार्ड रिपन के यहाँ आने के पूर्व करवाये थे। पभिनी महल के आगे है खातण रानी का महल, चित्रांगद मौर्य द्वारा निर्मित चत्रंग तालाब, बूंदी व रामपुर की हवेलियों के खण्डहर, शासकों के राज्याभिषेक का स्थान ऊँचा टीला या जिसे राजटीला कहते है, मृगवन, बीकारवोह नामक प्रसिद्ध बुर्ज जहाॅ से बहादुरशाह के आक्रमण के समय लबरी खाँ फिरंगी ने सुरंग में बारुद भरकर 45 फीट दीवार को उड़ा दिया था।
इस सात मंजिले 75 फीट ऊँचे स्तम्भ का निर्माण 12 वी शताब्दी में दिगम्बर सम्प्रदाय के बघेरवाल श्रेष्ठी जीजा ने करवाया था। यह भगवान आदिनाथ को समर्पित है। अपने समय के बिम्ब में सबसे ऊँचे स्मारक का गौरव प्राप्त इस स्तम्भ के बारे में विस्तार से इसी पुस्तक में 'जैन कीर्ति-स्तमभ' शीर्षक से दिया गया है। कीर्ति-स्तम्भ से सड़क लाखोटी बारी, रतनसिंह के भव्य महल, कुकडे़श्वर कुण्ड होती हुई रामपोल जाती है।
यह भव्य महल ई. सन् 1528 से 1531 तक निर्मित हुआ रत्नेश्वर तालाब के किनारे बने इस भव्य महल के उत्तर में रत्नेश्वर महादेव का मंदिर है, जिसमें गर्भ गृह, अन्तराल एवं मण्डप है। इसकी दीवारों पर सुन्दर पुताई का कार्य किया हुआ है। इस महल के उत्तर में भी शांतिनाथजी, श्री महावीरजी का प्राचीन मंदिर है। जिससे जुड़े हुए जीर्ण-शीर्ण जैन मंदिर में अजैन मूर्तियाँ स्थापित है।
पुरातत्व के कार्यालय से उत्तर दिशा की सड़की की ओर जाने पर भामाशाह की हवेली के खण्डर दिखाई देते है। उनके पिता भारमलजी महाराणा सांगा एवं उदयसिंह के समय क्रमशः किलेदार एवं प्रधान थे। भामाशाह की बहादुरी से महाराणा प्रताप बहुत प्रभावी थे। हल्दीघाटी के युद्ध में भामाशाह ने प्रताप की सेना का नेतृत्व किया था एवं विपत्ति आर्थिक मदद दी थी। भामाशाह का नाम उनकी दानशिलता, बहादुरी एवं पूर्ण समर्पण व ईमानदारी से मेवाड़ राज्य की सेवा के लिए जाना जाता है। भामाशाह कावड़िया जैन थे जिनकी तीन पीढ़ियों ने मेवाड़ के शासकों क्रमशः प्रताप, अमरसिंह एवं कर्णसिंह के राज्यकाल में प्रमुख पदों पर कार्य किया।
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